أضمُّ جوانحي روائعَ المنى
مِنْ مَنْبَعِ السلامْ..
مِنْ صَحْوَةِ الأحلامِ،
مِنْ بدائعِ السنا..
جدائلي سنابلُ..
أصابعي معاوِلُ..
مواسمي جنى..
شرْقيةٌ أنا..
إشراقتي خَفَرْ..
عواصفي مَطَرْ..
موانئي سَفَرْ..
للحبِّ ضِمْنَ خافقي مكانْ..
ومَرْتَعٌ خصيبْ..
يُقيمُ في أرجائهِ الإنسانْ..
والمَوْطِنُ الحبيبْ..
في غفوتي سكونُ عاصفةْ..
ويقظتي نشاطْ..
في خِدْمَةِ الحياةْ..
أحلاميَ البيضاءْ..
تظلُّ في سَفَرْ..
تجولُ في السماءْ..
وذُروةُ القمرْ..
أجعلها لي مَسْكنا..
شرقيةٌ أنا..
كرامتي منيعةْ..
وقيَمي رفيعةْ..
أفيقُ في الصباحْ..
يغمرني انشراحْ..
أسبّحُ الرّحمنْ..
أجَوّدُ القرآنْ..
ومِنْ رضى الدّيّانْ..
يَغْمرني الهنا..
شرقيةٌ أنا..
مُمْتَدّةٌ جذوري..
هناكَ في البعيدْ..
إلى بحارِ النّورِ..
والزّمنِ السعيدْ..
شرقيةٌ أنا..
أسيرُ نحوَ مقْصدي..
على جوادي الأبيضِ..
فوقَ السحابِ مقْصَدُهْ..
مِنَ النجوم مَوْرِدُهْ..
أُلَمْلِمُ الهنا..
وأجْمَعُ السنا..
وللجميع أُوْرِدُهْ..
شرقيةٌ أنا..
للعزّ والشّمَمْ..
شّدَدْتُ همّتي..
واثِقَةَ الخُطا..
مؤمنةً بالله..
وبالعروبةِ..
كرامةُ الإنسانْ..
هنا محجّتي..
عرفتَ مَنْ أنا؟؟!!..
شرقيةٌ أنا..
أول قصيدة تُنشر لللشاعرة..
وكان ذلك، في آذار عام 2001م